राजेश बैरागी। पचास बरस पहले मैं साढ़े पांच बरस का था परंतु मैं बिल्कुल अबोध नहीं था। मैंने 26 जून 19975 की सुबह गाजियाबाद में पुलिस की गाड़ियों को बिना वजह सायरन बजाते हुए सड़कों पर दौड़ते देखा था और वह दृश्य आज भी मेरे स्मृति पटल पर ताजा है। यह 25 जून 1975 की देर शाम लगाई गई इमेरजैंसी की पहली सुबह थी।
संचार का सबसे बड़ा साधन मुहल्ले या दुकानों पर आने वाले अखबार थे जो अभी आये नहीं थे। कुछ लोगों के पास रेडियो सेट्स थे परन्तु रात में किसी को भी इमेरजैंसी लागू होने का विशेष अहसास न था। सड़कों पर सायरन बजाकर दौड़ती पुलिस की जीपों को लोग विस्तारित नेत्रों से देख रहे थे। दरअसल तब तक लोगों को इमेरजैंसी का मतलब और प्रभाव का कुछ भी पता नहीं था। उससे पहले भी एक दो बार राष्ट्रव्यापी इमेरजैंसी लागू की गई थी परंतु वह आर्थिक इमेरजैंसी जैसी कुछ थी। यह सत्ता पर काबिज लोगों द्वारा अपनी रक्षा के लिए लागू की गई थी और इसका सीधा असर आम नागरिकों पर आना था। यानी उन्हें बोलने, सत्ता के विरुद्ध आवाज उठाने या अपने कानूनी अधिकारों की मांग करने से बाज रहना था। मैं इतनी छोटी आयु में यह सब नहीं जानता था। मैं भी अन्य लोगों की भांति केवल पुलिस की सायरन बजाती जीपों को कौतूहल से देख रहा था।भय एक अहसास है और जिसे यह अहसास न हो उसे भय नहीं लगता। मेरी स्थिति ऐसी ही थी। मैं अखबार बांच लेता था। उसमें इमरजेंसी लागू होने का समाचार सबसे ऊपर छपा था।जो लोग आज जीवित हैं परंतु उस समय जन्मे भी नहीं थे, उनके लिए इमरजेंसी का अहसास करना नामुमकिन है। अगले दिन से गाजियाबाद शहर के घंटाघर के आसपास अतिक्रमण हटाया जाने लगा। पुलिस गजब की शक्ति और अधिकारों से लबरेज हो गई थी। परिवार नियोजन को लेकर तमाम तरह की चर्चाएं फैलने लगीं। एक कनस्तर में आटा लेकर आ रहे दो मजदूर सामने से गश्त करते आ रहे पुलिसकर्मियों को देखकर कनस्तर फेंक कर भाग खड़े हुए। गांवों में इमरजेंसी का वैसा प्रभाव नहीं था परंतु राजस्व विभाग के कर्मचारी नौकरी बचाने के लिए बड़े बुड्ढे जवानों को नसबंदी कराने के लिए चिरौरी करने से लेकर धमकी तक दे रहे थे। लगभग डेढ़ बरस यही सब नाटक चला।लोग निजी आजादी को लगभग भूलने लगे थे कि इमरजेंसी हटने और आम चुनाव होने की घोषणा हो गई। ग्रामीण महिलाओं ने गीत बना लिया,-इंदिरा गांधी सबकी बांदी,लगै हमारी सौत वोट,नहीं देने के।’ इंदिरा गांधी और उनकी कांग्रेस पार्टी चुनाव हार गई परंतु ढाई वर्ष बाद पुनः पूरी शक्ति से देश की सत्ता पर आसीन हो गईं। यह समूची कहानी न तो नयी है और न अभूतपूर्व है। दुनिया के अनेक देशों में इमरजेंसी का बेजा इस्तेमाल दशकों तक होता रहा है। चीन जैसे देश एक दलीय लोकतांत्रिक इमरजेंसी के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। फिर इमरजेंसी के 50 वर्ष पूरे होने पर इतना स्यापा क्यों? आज कांग्रेस में कितने लोग शेष हैं जो इमेरजैंसी लागू करने के फैसले में मन से और मजबूरीवश शामिल थे। आज बची खुची कांग्रेस अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है।उसे कोसने से क्या हासिल। मुझे लगता है कि मौजूदा सरकारों को पिछली सरकारों की गलतियों से सबक सीखना चाहिए न कि उनकी गलतियों की लाश पर अपनी कथित सदाशयता का नृत्य करना चाहिए
Leave a Reply