राजेश बैरागी- एक समय अवसादग्रस्त होने पर मैंने प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय की अपने घर के निकट शाम को आयोजित होने वाली संगत में जाना प्रारंभ किया। वहां मुरली सुनाई जाती थी। दरअसल यह मुरली कोई वाद्ययंत्र नहीं बल्कि एक दो पृष्ठों का कोई आलेख होता है जो प्रतिदिन विश्वविद्यालय से सभी स्थानीय इकाईयों को दूरसंचार प्रणाली से भेजा जाता है। कभी कभी प्राप्त न होने पर पुराने आलेख को भी स्थानीय इकाई पर नियुक्त बहिनें (मेरे विचार से ये स्वयंसेविका नहीं, वेतनभोगी सेविका होती हैं) पढ़ कर सुना देती हैं। इस मुरली में कुछ भी समझ में आने योग्य नहीं होता है परंतु भक्त (अंधभक्त कहने से किसी की भावना आहत हो सकती है) आंखें बंद करके सुनते हैं। मैंने भी एक दो दिन सुना और उसके बाद अवसादग्रस्त होने के बावजूद मेरा पत्रकार जाग्रत हो गया। मैंने मुरली उच्चारण के पश्चात उसे उच्चारित कर रही सेविका से सुनाई गई मुरली के किन्हीं हिस्सों पर स्पष्टीकरण मांगा। सेविका और उसकी सहयोगी मेरे प्रश्नों से सकते में आ गईं। ऐसा पहली बार हुआ था। स्वयं उन्हें उस मुरली का कोई अर्थ मालूम नहीं था। उन्हें उत्तर देने से बचते देख मैंने अपने प्रश्न वापस ले लिए। ऐसा न करने से भक्तों की नाराज़गी का शिकार भी होना पड़ सकता था और यह बहुत महंगा भी हो सकता था। यह बताना यहां आवश्यक है कि इस घटना के दो प्रभाव हुए। मैं वहां से निराश हो गया परंतु मेरा अवसाद भी मुझसे निराश हो गया और प्रजापिता ब्रह्माकुमारी वालों को भी मुझसे मुक्ति मिल गई।
इस कथा को सुनाने के पीछे आज दैनिक समाचारपत्रों में प्रकाशित नगर पालिका परिषद दादरी का वह विज्ञापन है जो समाचारपत्र के एक पूरे पृष्ठ पर काबिज है परंतु उसे समझना और प्रजापिता ब्रह्माकुमारी वालों की मुरली समझना एक समान है। सरकारी घोषणाओं और विज्ञप्तियों की भाषा प्राकृतिक रूप से इतनी उलझी हुई है या उसे जानबूझकर उलझन भरी बनाया जाता है, मुझे स्वयं मालूम नहीं है। मुझे लगता है कि विवाद उत्पन्न होने पर न्यायालय भी उसे समझने के लिए हिंदी से समझने योग्य हिंदी के अनुवादकों की सेवा लेते होंगे। आमजन के समझ में न आने वाली कोई भी भाषा या बात उसके लिए लाभप्रद कैसे हो सकती है? केंद्र की मोदी सरकार अपनी स्थापना से अप्रासंगिक हो चुके कानूनों और अनावश्यक नियमों को हटाने का उद्योग कर रही है। क्या सरकारी उद्घोषणाओं और विज्ञप्तियों की भाषा आमजन की समझ में आने वाली भाषा से बदलने का समय नहीं आया है या सरकार इसे अबूझ पहेली बनाकर अपने उल्लू सीधा करने को ही उचित मानती है।

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