हारे हुए प्रत्याशी की हताशा या कुछ और 

राजेश बैरागी।लोकतंत्र में प्रश्न पूछना और आवाज उठाने की प्रत्येक नागरिक को स्वतंत्रता है और यह उसका संवैधानिक अधिकार भी है। परंतु क्या कहीं भी, किसी भी समय और किसी भी अवसर पर ऐसा किया जा सकता है जबकि आपातस्थिति भी न हो? बीते लोकसभा चुनाव में गौतमबुद्धनगर से प्रत्याशी रहे सज्जन बीते कुछ समय से अतिसक्रियता के शिकार हैं। चुनाव के दौरान भी उनके प्रश्नों का अंत नहीं था। अधिकारी उनसे आजिज थे। उन्होंने चुनाव केवल प्रतीकात्मक लड़ा और एक गैर मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल के धन शोधन में कथित तौर पर सहयोग किया। कुछ सैकड़ा वोट प्राप्त कर उन्होंने जमानत जब्त कराने का तमगा हासिल किया। यहीं से उन्हें समाज सेवा के नाम पर प्रशासनिक गलियारों में सक्रिय होकर इस धन बहुल जनपद का सदुपयोग करने का परम ज्ञान प्राप्त हो गया। आजकल इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए यहां वहां भागे फिरते हैं। संविधान में उल्लिखित अधिकारों की व्याख्या उन्हें कंठस्थ है। पूर्व प्रत्याशी होने को उन्होंने विशेषाधिकार मान लिया है। उन्हें कोई नेता नहीं मानता परंतु किसी के मानने न मानने से उनपर कोई फर्क नहीं पड़ता।वे स्वयं को नेता मानते हैं, इसपर किसका वश चलता है। दरअसल यह सक्रियता,यह ओछापन,यह बेशर्मी अयोग्यता को सफलता दिलाने की है। जनता ने उन्हें नकारा नहीं है, जनता ने उन्हें देखा ही नहीं था और उनका नोटिस ही नहीं लिया था। मैं ऐसे खरपतवार सरीखे स्वयंसिद्ध नेताओं के बारे में विचार करता हूं तो मुझे प्रशासन के कमजोर होने का अनुभव होने लगता है। ऐसे लोग न तो समाजसेवी हैं और न व्हिसलब्लोअर। ये दलाली के क्षेत्र में स्थापित होने के लिए प्रयासरत सीधे सच्चे उचक्के हैं।प्रशासन को ऐसे लोगों का प्रवेश वर्जित करना चाहिए।स्थापित दलालों का भी यह परम कर्तव्य है कि वे ऐसे लोगों को एक जाति विशेष के जानवरों की भांति भौंक भौंक कर मैदान से बाहर करें। मेरी उन हारे हुए प्रत्याशी को भी सलाह है कि उन्हें पुलिस प्रशासन से अपने लिए सुरक्षा की मांग करनी चाहिए, क्योंकि चुनाव में उनके विरुद्ध लगभग तेरह लाख लोग थे जिन्होंने उन्हें वोट नहीं दिया था

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