राजेश बैरागी।आज ही की तिथि में 1993 में जब मैं दुल्हा बना तो यह मेरे लिए कोई आश्चर्यजनक घटना नहीं थी। एक आवश्यक कार्य की भांति मैं विवाह करने के लिए तैयार हुआ था।उस समय मेरी ससुराल बुलंदशहर जिले में थी, कालांतर में एक नये जनपद गौतमबुद्धनगर के अस्तित्व में आने से हम दोनों एक ही जिले के निवासी हो गये। विवाह के समय दादरी से बीरमपुर तक दो रास्तों से पहुंचा जा सकता था, एक सिकंदराबाद होकर और दूसरा दनकौर रबुपुरा होकर। रात्रि में दोनों ही रास्ते संकट भरे थे। एक पिता समान बाराती ने कहा,अब पत्रकार की यहां शादी हो गई है तो रास्ते भी सुधर जाएंगे। क्या आम लोग पत्रकारों से इतनी बड़ी बड़ी अपेक्षाएं रखते हैं? हालांकि मेरा कोई प्रयास नहीं रहा परंतु चार वर्ष बाद ही गौतमबुद्धनगर जनपद बनने से सिकंदराबाद जेवर मार्ग और कासना दनकौर रबुपुरा मार्ग के दिन भी बहुर गये। मैं और मेरी पत्नी को वैवाहिक संबंध में बंधे कल 32 वर्ष पूरे हो गए थे, आज से तैंतीसवां चालू हो गया। इस बीच हमने दो बच्चों को जन्म दिया। उनके शादी ब्याह भी हो गये। एक नातिन भी है।32 वर्ष का वैवाहिक जीवन गुजर जाने से कैसा लगता है? यह जीवन अब तक संघर्षों और पारिवारिक/सामाजिक जिम्मेदारियों को समर्पित रहा है। पारिवारिक जिम्मेदारियां लगभग पूरी हो चली हैं, सामाजिक जिम्मेदारियों का कोई अंत नहीं। जीवन के उत्तरार्ध में जब जीवनसाथी एक दूसरे को देखते हैं तो वहां केवल और केवल अपने अतीत को पाते हैं। अतीत जो अंतरंग था, अतीत जिसमें अभावों के बावजूद एक दूसरे के प्रति समर्पण का भाव था, अतीत जिसपर अपना अधिकार नहीं था परंतु वह पराया भी नहीं था और अतीत जो न होता तो क्या होता। मैंने कल पत्नी से कहा,-अब तक हम साथ जीते रहे परंतु एक दूसरे को प्रेम नहीं कर सके। उन्होंने कहा,-जो प्रेम नहीं करते तो एक दूसरे के साथ कैसे रह सकते थे।(
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